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13CHAPTER12

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Esskayen

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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ एकादश अध्याय के अन्त में शृरी कृष्णी ये बारंबार बल दिया था कि आर्जून मेरा ये स्वरूप जिसे तूने देखा तेरे सिवाय न पहले कभी देखा गया है और न भविश्य में कोई देख सकेगा मैं न तब से न यग्य से और न दान से ही देखे जाने को सुलब हूँ किंटु अनन्य भक्ति के द्वारा अर्थात मेरे अतिरित अन्यत्र कहीं श्रधा विखेरने न पाए निरंसर सैल धारावत मेरे चिंतन के द्वारा ठीक इसी प्रकार जैसा तूने देखा मैं प्रत्यक्ष देखने के लिए तत्व से साक्षास जानने के लिए और प्रवेश करने के लिए भी सुलब हूँ अतः अर्जुन तू निरंसर मेरा ही चिंतन कर भक्त बन आध्याय के अंत में उन्होंने कहा था अर्जुन तू मेरे ही द्वारा निर्धारित किये गए कर्म को कर मत परमहा अपितु मेरे परायन हो कर अनन्य भक्त ही उसकी प्राप्ति का माध्यम है इस पर अर्जुन का प्रश्न स्वाभाविक था कि जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं इन दोनों में श्रेष्ट कौन है अर्जुन ओवाज़ा प्रश्न स्वाभाविक था कि जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं इन दोनों में श्रेष्ट कौन है अर्जुन ओवाज़ा प्रश्न स्वाभाविक था कि जो अव्यक्त अक्षर की उपासना करते हैं इन दोनों में श्रेष्ट कौन है अर्जुन ओवाज़ा इस पर योगेश्वर श्री कृष्ण ने कहा श्री भगवान वाज़ा परयो पेता ते में युक्त तमामता अर्जुन मुझ में मन को एकाग्र करके निरंतर मुझ से संयुक्त हुए जो भक्त जन परम से तम्मंद रखने वाली श्रेष्ट शद्धा से युक्त होकर मुझे भजते हैं वे मुझे योगियों में भी अति उत्तम योगी माने हैं जो पुरुष इंद्रियों के समुदाय को भली प्रकार संयत करके मन बुद्धी के चिंतन से अत्यंत परे सर्वव्यापि अकतनी स्वरूप सदा एकरस रहने वाले नित्य अचल अव्यक्त आकार रहित और अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं सम्पूर्ण भूतों के हित में लगे हुए और सब में समान भाव वाले वे योगी भी मुझे ही प्राप्त होते हैं ब्रह्म के उपर यूपत विशेशा मुझे से भिन नहीं हैं किन्टू क्लेशोधिक तरस्तेशाम अव्यक्तासत्त चेतसाम अव्यक्ताहिकति दुखम देहवद भिरवाप्यते उन अव्यक्त परमात्मा में आसक्त हुए चित्त वाले पुरुषों के साधन में क्लेश विशेश हैं क्योंकि देहविमानियों से अव्यक्त विश्यगति दुख पूर्वग प्राप्त की जाती हैं जब तक देह का भान है तब तक अव्यक्त की प्राप्ती दुशकर है योगेश्वर शुरी कृष्ण सद्गुरू थे अव्यक्त परमात्मा उन में व्यक्त था वे कहते हैं कि महापुरुष की शर्म न लेकर जो साधक अपनी शक्ति समझते हुए आगे बढ़ता है कि मैं इस अवस्था में हूँ आगे इस अवस्था में जाऊँगा मैं अपने ही अव्यक्त शरीर को प्राप्त हूँगा वो मेरा ही रूप होगा मैं वही हूँ इस प्रकार सोचते प्राप्त की प्रतिक्षा न करकी अपने शरीर को ही सोहम कहने लगता है यही इस मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है वो दुखालियम अशाश्वतम में ही घूंपिर कर खड़ा हो जाता है किन्टु जो मेरी शरल लेकर चलता है वो येतु सर्वाणि कर्मानि मैं सन्यत्यमत्पराँ अनन्देनैवयोगेन मां ध्यायंत उपासते जो मेरे परायण होकर समपूर्ण कर्मों अर्थात आराधना को मुझे अरपण करके अनन्य भाव से योग अर्थात आराधना प्रक्रिया के द्वारा निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं सेशामहं समुद्धर्ता मृत्य संसार सागरात भवामिन चिरात पार्थ मैं यावेशित चेत थां केवल मुझ में चित लगाने वाले उन भक्तों का मैं शीगर ही मृत्य रूपी संसार से उधार करने वाला होता हूँ इस प्रकार चित लगाने की प्रेर्णा और विदि पर योगीश्व प्रकाश डालते हैं मैं येव मन आधत्व मैं बुद्धिम निवेशय निवसिष्यसि मैं येव अत ऊर्ध्वं न तौशय इसलिए अर्जुन तु मुझ में मन लगा मुझ में ही बुद्धि लगा इसके उपरांथ तु मुझ में ही निवास करेगा इसमें कुछ भी संशे नहीं है मन और बुद्धि भी न लगा सके तब जैसा अर्जुन ने पीछे कहा भी था कि मन को रोकना तो मैं वायू की तरह दुशकर समझता हूँ इस पर योगेश्वर श्री कृष्म कहते है यदि तु मन को मुझ में अचल स्थापित करने में समर्थ नहीं है तो हे अर्जुन योग के अभ्यास बारा मुझे प्रात्व होने की इच्छा कर अर्थाब जहां भी चित जाए वहां से धसीद कर उसे आराधना चिंतन क्रिया में लगाने का नाम अभ्यास है यदि ये भी न कर पाए तो अभ्यास एप्य समर्थो सी मत कर्म परमोभव मदर्धम पिकर्माणी कुर्वन सिद्धि मवाप्यसी यदि तु अभ्यास में भी असमर्थ है तो केवल मेरी लिए कर्म कर अर्थाद आराधना करने में तक्पर हो जा इस प्रकार मेरी प्राप्ति के लिए कर्मों को करता हुआ तो मेरी प्राप्ति रूपि सिद्धि को ही प्राप्त होगा अर्थाद अभ्यास भी पार न लगे तो साधन पथ में लगे भर रहो पथाई तदप्य शक्तोसी फर्तुम्मद्योगमाश्रितः सर्वकर्मफलत् प्यागं ततः कुरूयतात्मवां यदि इसे भी करने में असमर्थ हो तो सम्पूर्ण कर्म के फल का त्याग कर अर्थाद लाभान की चिंता छोड़ कर मद्योग के आश्रित होकर अर्थाद समर्पन के साथ आत्मवान महपुरुष की शरण में जाओ उनसे प्रेरित होकर कर्म स्वता होने लगेगा समर्पन के साथ कर्म फल के त्याग का महत्व बताते हुए योगेश्वर श्री कृषु कहते हैं केवल चित को रोकने के अभ्यास से ज्यान मार्ग से कर्म में प्रवृत्त होना श्रेष्ट है ज्यान माध्यम से कर्म को कार्यरूप देने की अभेक्षा ध्यान श्रेष्ट है क्योंकि ध्यान में इश्ट रहता ही है ध्यान से भी सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ट है क्योंकि इश्ट के प्रती समर्पण के साथ ही योग पर द्रिश्टी रखते हुए कर्म फल का त्याग करने से उनके योग खेम की जिम्मेदारी इश्ट की हो जाती है इसलिए इस त्याग से वो तकाल ही परम शांती को प्राप्त हो जाता है अभी तक योगेश्वर श्री कृष्म ने बताया कि अव्यक्त की उपासना करने वाले ज्यान मार्गी से समर्पण के साथ कर्म करने वाला निष्काम कर्म योगी श्रेष्ट है दोनों एक ही कर्म करते हैं किन्तु ज्यान मार्गी के पत में व्यवधान अधिक है उसके लाबहान की जिम्मेदारी स्वयम पर रहती है जबकि समर्पित भक्ती की जिम्मेदारी महापुरुष पर होती है इसलिए वो कर्म फल त्याग दोरा शीकर ही शान्ति को प्राप्त होता है अब शान्ति प्राप्त पुरुष के लक्षन बताते हैं सम दुख सुख ख्षमी इसप्रकार शान्ति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेश भाव से रहित सब का प्रेमी और हेतु रहित दयालु है और जो ममता से रहित अहंकार से रहित सुख दुख की प्राप्ती में सम तथा ख्षमावान है सन्तुष्ट सततं योगी यतात्मात्रिः निच्छयः मैयर्पितमनो बुद्धेहि योमत भक्त समेप्रियः जो निरंतर योग की पराकाश्था से संयुप्त है लाव तथा हानी में सन्तुष्ट है मन तथा इंद्रियों सहिट शरीर को वश्म किये हुए है दृन निच्छयः वाला है वो मुझ में अर्पित मन बुद्धी वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है यस्मानो द्विजते लोको लोकानो द्विजते चयः हर्षामर्ष भयो द्विगये मुक्तो यः सचमेप्रियः जिससे कोई भी जीव ज्वेप को प्राक्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्विगन नहीं होता हर्ष, संताप, भयो और समस्त विक्षोगों से मुक्त है वो भक्त मुझे प्रिय है साधकों के लिए ये श्लोक अच्यंट उप्योगी है, उन्हें इस दहन से रहना चाहिए कि उनके द्वारा किसी के मन पो ठेस न लगे, इतना तो साधक कर सकता है, किन्टु दूसरी लोग इस आचरन से नहीं चलेगे, वे तो संसारी हैं ही, वे तो आग उगलेंगे, कुछ अर्थात उनके आधातों से भी उठल पुठल न हो, चिंतन में सुरत लगी रहे, क्रम न तूटे, उदाहरण के लिए, आप स्वयम साधक पर नियामाकूल बाय से चल रहे, कोई मदिरा पीकर चला आ रहा है, उससे बचना भी आपकी जिंदिगारी है, अनपेक्ष शुचिर्दक्ष, उदासी नोग तव्यसः, सर्वारंभ परित्यागी, यो मद भक्त समेप्रिय, जो पुरुष आकांख्षाओं से रहित, सर्वथा पवित्र है, दक्षा हो, अर्थाद आराधना का विशेशभ्य है, अर्थाद ऐसा नहीं कि चोरी करता हो, तो दक्ष है, श्री कृष्म के अनसार कर्म एक ही है, मियत कर्म, आराधना, चिंतन, उसमें जो दक्ष है, जो पक्ष विपक्ष से परे है, दुखों से मुक्त है, सभी आरम्हों का त्यादी, वो मेरा भक्त मुझे प्रिय है, करने योग्य कोई क्रिया उसके द्वारा आरम्भ होने के लिए शेष नहीं रहती, शुभा शुभ परे त्यादी, भक्ति मान्य समी प्रिय है, जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेश करता है, न शोक करता है, न कामना ही करता है, जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यादी है, जहां कोई शुभ विलग नहीं है, अशुभ शेष नहीं है, भक्ति की इस पराकाश्था से युक्त वो पुरुष मु प्रेच तथा माना पमानयों शीतोष्ण सुख दुखेशों तमः पंग विवर्जितः जो पुरुष, शत्रु और मित्रु में, मान तथा अपमान में सम है, जिसके अंतह करन की वृत्तियां सर्वता शांत है, जो सर्दी, गर्मी, सुख, दुखादी द्वन्धों में सम है और आसक्ति रहित है तथा तुल्य निन्दास्तुतिर मौनी संतुष्टो एनकेन चित अनिकेतस्थिरमतिर भक्ति मान में पियो नरहा जो निन्दा तथा स्तुति को समान समझने वाला है, मननशीलता के चरम सीमा पर पहुँचकर, जिसकी मन सहित इंद्रिया शांत हो चुकी है, जिस किसी प्रकार शरीव निर्वाव होने में जो सदई संतुष्ट है, जो अपने निवास्थान ममता से रहित है, भक्ति की पराकाश्था पर पहुचा हुआ, वो सिर बुद्धी वाला पुरुष मुझे प्री है येतु धर्म्यां वृतमिदं यतोक्तं पर युपासते शर्द्धानामत परमा, भक्तास्ते तीवमेश्ट्रिया जो मेरे परायण हुए हारदिक शर्द्धा यूपत पुरुष इस उपर यूपत धर्म मैं अमरित का भली प्रकार सेवन करते हैं, वे भक्त मुझे अतिष्य प्रिय हैं, निषकर्ष गत अध्याय के अंत में योगेश्वर श्री कृष्म ने कहा था कि अर्जुन तेरे सिवाय न कोई पाया है, न पा सकेगा जैसा तू ने देखा, किन्तु अनन्य भक्ती अथ्वा अनुराग से जो भजता है, वो इसी प्रकार मुझे देख सकता है, तत्व के साथ मुझे ज योगेश्वर श्री कृष्म ने बताया कि दोनों मुझे ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ, किन्तु जो उत्तम योगेश्वर श्री कृष्म ने बताया कि दोनों मुझे ही प्राप्त होते हैं, क्योंकि मैं अव्यक्त स्वरूप हूँ, किन्त इंद्रियूं को वश में रखते हुए, मन को सब और से समेट कर अव्यक्त परमात्मा में आ सकते हैं, उनके पथ में कलेश विशेश हैं, जब तक देह का अध्यास, अर्थात भान है, तब तक अव्यक्त स्वरूप की प्राप्ति दुख पूर्ण है, क्योंकि अव्यक्त स् प्राप्ति दुख पूर्ण है, जब तक देह का अध्यास, अर्थात भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध् या जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास � भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध् भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध्यास भान है, जब तक देह का अध् योगेश्वर श्री कृष्ण ने शांति प्राप्त योग युक्त भाक्त की रहनी पर प्रकाश डाला, जो सादुकों के लिए उपादेय है, अंत में निर्णे देते हुए उन्होंने कहा, अर्जुम, जो मेरे परायन हुए अनन्य श्रद्धात युक्त पुरुष इस ऊ� वे भाक्त मुझे अतिशाय प्रिये, अतिश समर्पन के साथ इस कर्म में प्रवृत्त होना श्रियतर है, क्योंकि उसके हान लाब की जिम्मिदारी वे इश्ट सद्गुरू अपने उपर ले लेते हैं। यहां श्री कृष्ण ने स्वरूपस्त महापुरुष के लक्षन बताए, उनकी शरण में जाने को कहा और अंत में अपनी शरण में आने की प्रिर्णा देकर उन महापुरुषों के समकक्ष अपने को गोशित किया। श्री कृष्ण एक योगी महात्मा थे। इस अध्याय ओम् तच्चदिपि श्री मध भगवद घीता सूप निशट्सु ब्रह्म विद्यायां योगशास्त्रे श्री कृष्णा अर्जुन सम्वादे भक्ति योगनां द्वादशो अध्याया। इस प्रकार श्री मध भगवद घीता के भाष्य यथार्थ घीता का बारवा अध्याय पूर्ण होता है। हर्योम् तच्चद। प्रकार श्री मध भगवद घीता के भाष्य यथार्थ घीता का बारवा अध्याय पूर्ण होता है।

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